वो जो इक उम्र से मसरूफ़ इबादात में थे
आँख खोली तो अभी अर्सा-ए-ज़ुलमात में थे
सिर्फ़ आफ़ात न थीं ज़ात-ए-इलाही का सुबूत
फूल भी दश्त में थे हश्र भी जज़्बात में थे
न ये तक़दीर का लिखा था न मंशा-ए-ख़ुदा
हादसे मुझ पे जो गुज़रे मिरे हालात में थे
मैं ने की हद्द-ए-नज़र पार तो ये राज़ खुला
आसमाँ थे तो फ़क़त मेरे ख़यालात में थे
मेरे दिल पर तो गिरीं आबले बन कर बूँदें
कौन सी याद के सहरा थे जो बरसात में थे
इस सबब से भी तो मैं क़ाबिल-ए-नफ़रत ठहरा
जितने जौहर थे मोहब्बत के मिरी ज़ात में थे
सिर्फ़ शैतान ही न था मुंकिर-ए-तकरीम 'नदीम'
अर्श पर जितने फ़रिश्ते थे मिरी घात में थे
ग़ज़ल
वो जो इक उम्र से मसरूफ़ इबादात में थे
अहमद नदीम क़ासमी