वो जो इक शख़्स वहाँ है वो यहाँ कैसे हो
हिज्र पर वस्ल की हालत का गुमाँ कैसे हो
बे-नुमू ख़्वाब में पैवस्त जड़ें हैं मेरी
एक गमले में कोई नख़्ल जवाँ कैसे हो
तुम तो अल्फ़ाज़ के नश्तर से भी मर जाते थे
अब जो हालात हैं ऐ अहल-ए-ज़बाँ कैसे हो
आँख के पहले किनारे पे खड़ा आख़िरी अश्क
रंज के रहम-ओ-करम पर है रवाँ कैसे हो
भाव-ताव में कमी बेशी नहीं हो सकती
हाँ मगर तुझ से ख़रीदार को नाँ कैसे हो
मिलते रहते हैं मुझे आज भी 'ग़ालिब' के ख़ुतूत
वही अंदाज़-ए-तख़ातुब कि मियाँ कैसे हो
ग़ज़ल
वो जो इक शख़्स वहाँ है वो यहाँ कैसे हो
अफ़ज़ल ख़ान