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वो जिसे दीदा-वरी कहते हैं | शाही शायरी
wo jise dida-wari kahte hain

ग़ज़ल

वो जिसे दीदा-वरी कहते हैं

अब्दुल मजीद हैरत

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वो जिसे दीदा-वरी कहते हैं
हम उसे बे-बसरी कहते हैं

नाम उस का है अगर बा-ख़बरी
फिर किसे बे-ख़बरी कहते हैं

ये अगर लुत्फ़-ओ-करम है तो किसे
जौर-ओ-बे-दाद-गरी कहते हैं

क्या इसी कार-ए-नज़र-बंदी को
हुस्न की जल्वागरी कहते हैं

गुल के औराक़ पे काँटों का गुमाँ
क्या इसे ख़ुश-नज़री कहते हैं

बहर-ए-बीमार दवा है न दुआ
क्या इसे चारागरी कहते हैं

कम किसी को ये ख़बर है कि किसे
रंज-ए-बे-बाल-ओ-परी कहते हैं

यास-ओ-हिरमाँ को ब-अल्फ़ाज़-ए-दिगर
आह की बे-असरी कहते हैं

नाम है वो भी जिगर-दारी का
हम जिसे बे-जिगरी कहते हैं

आप ख़ुद भी तो गुल-अंदामों को
हूर कहते हैं परी कहते हैं

फ़स्ल-ए-गुल ही तो है वो हम जिस को
मौसम‌‌‌‌-ए-जामा-दरी कहते हैं

इश्क़ में ऐन हुनर-मंदी है
सब जिसे बे-हुनरी कहते हैं

मुफ़्त की दर्द-सरी को हम भी
मुफ़्त की दर्द-सरी कहते हैं

आप से हम से बनी है न बने
आप ख़ुश्की को तरी कहते हैं

क्या कोई बात कभी अहल-ए-जुनूँ
अज़-रह-ए-नाम-वरी कहते हैं

हम पे ये भी है इक इल्ज़ाम कि हम
दास्ताँ दर्द-भरी कहते हैं

कोई ख़ुश हो कि ख़फ़ा हो 'हैरत'
हम तो हर बात खरी कहते हैं