वो जिस की सारा जहाँ पुख़्तगी से हार गया
वो एक कोह-ए-गिराँ आदमी से हार गया
वही जो रात पे छाया हुआ अँधेरा था
सहर हुई है तो वो रौशनी से हार गया
नहीं है कोई सबब सब से उस के कटने का
ग़रीब आदमी था मुफ़्लिसी से हार गया
हर इक महाज़ पे दुश्मन को जिस से मात हुई
वो अपने दोस्तों की दोस्ती से हार गया
बहुत अज़ीज़ थी उस को भी अपनी जान मगर
हिसार-ए-जब्र में वो बेबसी से हार गया
दर-अस्ल उस के मुक़द्दर में हार लिक्खी थी
वो उस से जंग में बद-क़िस्मती से हार गया
हमेशा ये ही तो होता रहा है मेरे अज़ीज़
किसी की जीत तो कोई किसी से हार गया
नहीं था उस के बराबर का अहल-ए-ज़र भी कोई
मगर ग़रीब की दरिया-दिली से हार गया
ये क्या मक़ाम है इंसाँ की ज़िंदगी में 'नज़ीर'
निभाई मौत से और ज़िंदगी से हार गया
ग़ज़ल
वो जिस की सारा जहाँ पुख़्तगी से हार गया
नज़ीर मेरठी