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वो जिस का साथ निभाने का हौसला न हुआ | शाही शायरी
wo jis ka sath nibhane ka hausla na hua

ग़ज़ल

वो जिस का साथ निभाने का हौसला न हुआ

ख़ालिदा उज़्मा

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वो जिस का साथ निभाने का हौसला न हुआ
बिछड़ गया तो भुलाने का हौसला न हुआ

इधर उधर के सुनाए हज़ार अफ़्साने
दिलों की बात सुनाने का हौसला न हुआ

ये और बात कि बा-हौसला हूँ मैं फिर भी
नए चराग़ जलाने का हौसला न हुआ

ख़लीज कितने ज़मानों की कर गया पैदा
वो इक क़दम कि उठाने का हौसला न हुआ

किताब-ए-ज़ेहन का कोई वरक़ भी सादा नहीं
लिखे हुरूफ़ मिटाने का हौसला न हुआ

गुज़र गई थी शब-ए-हिज्र हिज्र में 'उज़मा'
चराग़ फिर भी बुझाने का हौसला न हुआ