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वो जिस का अक्स लहू को जगा दिया करता | शाही शायरी
wo jis ka aks lahu ko jaga diya karta

ग़ज़ल

वो जिस का अक्स लहू को जगा दिया करता

अख्तर शुमार

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वो जिस का अक्स लहू को जगा दिया करता
मैं ख़्वाब ख़्वाब में उस को सदा दिया करता

क़रीब आती जो तारीख़ उस के मिलने की
वो अपने वादे की मुद्दत बढ़ा दिया करता

मैं ज़िंदगी के सफ़र में था मश्ग़ला उस का
वो ढूँड ढूँड के मुझ को गँवा दिया करता

उसे समेटता मैं जब भी एक नुक़्ते में
वो मेरे ध्यान में तितली उड़ा दिया करता

उसी के गाँव की राहों में बैठ कर हर रोज़
मैं दिल का हाल हवा को सुना दिया करता

मुझे वो आँख में रख कर 'शुमार' पिछली शब
अजब ख़ुमार में पलकें गिरा दिया करता

न छेड़ मुझ को ज़माना वो और था जिस में
फ़क़ीर गाली के बदले दुआ दिया करता