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वो जिन के नक़्श-ए-क़दम देखने में आते हैं | शाही शायरी
wo jin ke naqsh-e-qadam dekhne mein aate hain

ग़ज़ल

वो जिन के नक़्श-ए-क़दम देखने में आते हैं

सलीम कौसर

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वो जिन के नक़्श-ए-क़दम देखने में आते हैं
अब ऐसे लोग तो कम देखने में आते हैं

कहीं नहीं है मिनारा न मिम्बर ओ मेहराब
महल-सरा से हरम देखने में आते हैं

तवाफ़-ए-कू-ए-सुख़न ख़त्म ही नहीं होता
कोई नहीं है तो हम देखने में आते हैं

अटे हुए हैं ग़ुबार-ए-शिकस्तगी में 'सलीम'
जो आईने पस-ए-ग़म देखने में आते हैं