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वो जिधर भी नज़र उठावे है | शाही शायरी
wo jidhar bhi nazar uThawe hai

ग़ज़ल

वो जिधर भी नज़र उठावे है

नुद्रत नवाज़

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वो जिधर भी नज़र उठावे है
ज़िंदगी का पता बतावे है

दूर तक कोई भी नहीं अब तो
कौन ये शोर सा मचावे है

उस सड़क पर वो घर नहीं मिलता
जो सड़क उस के घर को जावे है

कोई तो बात है जो मैं चुप हूँ
वर्ना यूँ कौन दिल जलावे है

मैं तो उस का पता हूँ लेकिन वो
मुझ से अपना पता छुपावे है

उस से कटता नहीं दरख़्त कोई
नर्म शाख़ों को वो झुकावे है

सहमा रहता हूँ घर के अंदर भी
जाने क्या शय मुझे डरावे है

आओ नुदरत-'नवाज़' लौट चलो
वो कहाँ अपने लब हिलावे है