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वो इक चटान जो पानी हुई सलीक़े से | शाही शायरी
wo ek chaTan jo pani hui saliqe se

ग़ज़ल

वो इक चटान जो पानी हुई सलीक़े से

खुर्शीद अकबर

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वो इक चटान जो पानी हुई सलीक़े से
नदी कुछ और सियानी हुई सलीक़े से

निगह की धार में ख़ंजर का ज़ाइक़ा उतरा
दिलों की बात ज़बानी हुई सलीक़े से

इसे भी खा गई तहज़ीब दीमकों की तरह
नई किताब पुरानी हुई सलीक़े से

वो एक रात जो पहलू में मुतमइन थी बहुत
क़यामतों की निशानी हुई सलीक़े से

उठे जो शहर से सहरा पे वो बरस भी गए
ग़मों की नक़्ल-ए-मकानी हुई सलीक़े से

मिरे लहू से हैं गुल-रंग हसरतें उस की
सज़ा की शाम सुहानी हुई सलीक़े से

किसी का क़ुर्ब कबूतर के पँख जैसा था
बदन की आग भी पानी हुई सलीक़े से