वो हुस्न-ए-सब्ज़ जो उतरा नहीं है डाली पर
फ़रेफ़्ता है किसी फूल चुनने वाली पर
मैं हल चलाते हुए जिस को सोचा करता था
उसी की गंदुमी रंगत है बाली बाली पर
ये लोग सैर को निकले हैं सो बहुत ख़ुश हैं
मैं दिल-ए-गिरफ़्ता हूँ सब्ज़े की पाएमाली पर
इक और रंग मिला आ के सात रंगों में
शुआ-ए-महर पड़ी जब से तेरी बाली पर
मैं खुल के साँस भी लेता नहीं चमन में 'रज़ा'
मुबादा बार गुज़रता हो सब्ज़ डाली पर
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ग़ज़ल
वो हुस्न-ए-सब्ज़ जो उतरा नहीं है डाली पर
अख़्तर रज़ा सलीमी