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वो हर हर क़दम पर सँभलते हुए | शाही शायरी
wo har har qadam par sambhalte hue

ग़ज़ल

वो हर हर क़दम पर सँभलते हुए

श्याम सुंदर लाल बर्क़

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वो हर हर क़दम पर सँभलते हुए
दिलों को मसलते हैं चलते हुए

न अरमाँ को देखा निकलते हुए
न नख़्ल-ए-तमन्ना को फलते हुए

वो किस तरह क़ाबू में आएँ मिरे
क़यामत के पुतले हैं चलते हुए

रही एक अंदाज़ पर चश्म-ए-यार
ज़माने को देखा बदलते हुए

वो कुछ रंग लाएँगे रोज़-ए-विसाल
हिना उन को देखा है मलते हुए

दम-ए-नज़अ' यारब मैं देखूँ उन्हें
वो देखें मिरा दम निकलते हुए

उन्हें ग़ैर से जब न फ़ुर्सत मिली
चले आए हम हाथ मलते हुए

मैं जानूँ कि नाले में है कुछ असर
जो दिल उन का देखूँ पिघलते हुए

वो निकले उधर से तो ऐ 'बर्क़' यूँ
मिरा दिल कफ़-ए-पा से मलते हुए