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वो हम से क्यूँ अलग था क्यूँ दुखी था | शाही शायरी
wo humse kyun alag tha kyun dukhi tha

ग़ज़ल

वो हम से क्यूँ अलग था क्यूँ दुखी था

तसव्वुर ज़ैदी

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वो हम से क्यूँ अलग था क्यूँ दुखी था
हमारे ज़ेहन में जो आदमी था

पता देतीं मिरा क्या शाहराहें
मकाँ मेरा गली-अंदर-गली था

हज़ारों मैं छुपे थे मुझ में फिर भी
नज़र में आइने के एक ही था

हरे पत्तों से शबनम की जुदाई
यही आग़ाज़-ए-सुब्ह-ए-तिश्नगी था

ग़ुरूर-ए-सुब्ह क्या मुझ को दिखाता
लहू की शाम में मैं दीदनी था

अँधेरे झाड़ कर दामन से अपने
उठा तो रौशनी ही रौशनी था