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वो हाज़िर हो कि ग़ाएब हो निहाँ यूँ भी है और यूँ भी | शाही शायरी
wo hazir ho ki ghaeb ho nihan yun bhi hai aur yun bhi

ग़ज़ल

वो हाज़िर हो कि ग़ाएब हो निहाँ यूँ भी है और यूँ भी

अर्श मलसियानी

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वो हाज़िर हो कि ग़ाएब हो निहाँ यूँ भी है और यूँ भी
सरासर राज़ राज़-ए-कुन-फ़काँ यूँ भी है और यूँ भी

तहय्युर है हुज़ूरी में तो बेताबी है दूरी में
मुसीबत में ये जान-ए-ना-तवाँ यूँ भी है और यूँ भी

तमन्ना की तरह तर्क-ए-तमन्ना भी मुसीबत है
ये दुनिया इक मक़ाम-ए-इम्तिहाँ यूँ भी है और यूँ भी

वो आ कर भी रुलाते हैं वो जा कर भी रुलाते हैं
दिल-ए-नाकाम मशग़ूल-ए-फ़ुग़ाँ यूँ भी है और यूँ भी

उठाया नाज़-ए-रहबर भी जुनूँ भी आज़मा देखा
मगर बरहम निज़ाम-ए-कारवाँ यूँ भी है और यूँ भी

जो दिल में दाग़ रौशन हैं तो अश्क-ए-ख़ूँ है आँखों में
ये मंज़र-ए-गुल्सिताँ दर-गुल्सिताँ यूँ भी है और यूँ भी

रही जो बर्क़ से महफ़ूज़ पामाल-ए-ख़िज़ाँ होगी
ग़म-ए-अंजाम-ए-शाख़-ए-आशियाँ यूँ भी है और यूँ भी

फ़क़त कहने को तो है कामयाबी और नाकामी
मोहब्बत फ़ातह-ए-कौन-ओ-मकाँ यूँ भी है और यूँ भी

सितम हो या करम दोनों का हम पर शुक्र वाजिब है
जो अपना मेहरबाँ है मेहरबाँ यूँ भी है और यूँ भी

जो सुन सकते हो तुम सुन लो नहीं ताक़त तो हम चुप हैं
हमें मंज़ूर अपना इम्तिहाँ यूँ भी है और यूँ भी

उमीद-ए-सिलसिला-दर-सिलसिला लुत्फ़-ओ-दवाम इस में
बहार-ए-उम्र-ए-फ़ानी जावेदाँ यूँ भी है और यूँ भी

घटा सावन की और ऐ 'अर्श' इलहामात की बारिश
ज़मीं पर आज फ़ैज़-ए-आसमाँ यूँ भी है और यूँ भी