वो हाल है कि तलाश-ए-नजात की जाए
किसी फ़क़ीर-ए-दुआ-गो से बात की जाए
ये शहर कैसा ख़ुश-औक़ात था और अब क्या है
जो दिन भी निकले तो वहशत न रात की जाए
कोई तो शक्ल-ए-गुमाँ हो कोई तो हीला-ए-ख़ैर
किसी तरह तो बसर अब हयात की जाए
घरों में वक़्त-गुज़ारी का अब है शुग़्ल ही क्या
यही कि गुफ़्तुगू-ए-हादसात की जाए
अगर यही है अब ईफ़ा-ए-अहद में पस-ओ-पेश
तो ख़त्म रस्म-ओ-रह-ए-इल्तिफ़ात की जाए
हुसूल-ए-फ़तह ग़रज़ हो तो क्या बजा है ये तौर
तबाह उस के लिए काएनात की जाए
मुहाल ही में कुछ आसूदगी बहाल करें
कहाँ तक आरज़ू-ए-मुम्किनात की जाए
कुछ ऐसे भी हैं तही-दस्त ओ बे-नवा जिन से
मिलाएँ हाथ तो ख़ुशबू न हात की जाए

ग़ज़ल
वो हाल है कि तलाश-ए-नजात की जाए
महशर बदायुनी