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वो ग़ुंचा हूँ जो बिन खिले मुरझाए चमन में | शाही शायरी
wo ghuncha hun jo bin khile murjhae chaman mein

ग़ज़ल

वो ग़ुंचा हूँ जो बिन खिले मुरझाए चमन में

अनीसा बेगम

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वो ग़ुंचा हूँ जो बिन खिले मुरझाए चमन में
वो अश्क हूँ जो ज़ीनत-ए-दामाँ नहीं होता

ज़िंदाँ में भी टकराए हैं ज़ंजीर के हल्क़े
कब जोश-ए-जुनूँ दस्त-ओ-गरेबाँ नहीं होता

क्यूँ ख़ाल-ए-सियह आरिज़-ए-गुलगूँ पे है माइल
हिन्दू तो कोई माइल-ए-क़ुरआँ नहीं होता

जौहर न हों तो तेग़ है फ़ौलाद का टुकड़ा
इंसान फ़क़त कहने से इंसाँ नहीं होता

दीवाने को तेरे नहीं कुछ हू की ज़रूरत
मुहताज ब-संग-ए-कफ़-ए-तिफ़्लाँ नहीं होता