EN اردو
वो गुम हुए हैं मुसाफ़िर रह-ए-तमन्ना में | शाही शायरी
wo gum hue hain musafir rah-e-tamanna mein

ग़ज़ल

वो गुम हुए हैं मुसाफ़िर रह-ए-तमन्ना में

समद अंसारी

;

वो गुम हुए हैं मुसाफ़िर रह-ए-तमन्ना में
कि गर्द भी नहीं अब आरज़ू के सहरा में

है कौन जल्वा-सरा बाम-ए-आफ़रीनश पर
उतर गए हैं सितारे से चश्म-ए-बीना में

मिली थी जिस को नुमू दर्द की सलीबों से
वो लम्स भी नहीं बाक़ी मिरे मसीहा में

कशीद जिन से हुई थी नए ज़मानों की
वो मय-कदे भी हुए ग़र्क़ मौज-ए-सहबा में

उठा लिया था जिन्हें ग़म ने शहर-ए-मातम से
वो हर्फ़ लिक्खे गए हैं ख़त-ए-शकेबा में

दिया शुऊर उजालों का सुब्ह-ए-मरियम को
चराग़ किस ने जलाया शब-ए-कलीसा में

उठा है अब के वो तूफ़ाँ जवार-ए-साहिल से
कि मौज भी नहीं महफ़ूज़ कअ'र-ए-दरिया में

जो ले गईं मिरे यूसुफ़ को बाब-ए-ज़िंदाँ तक
वो चाहतें भी नहीं दामन-ए-ज़ुलेख़ा में

वो ज़ख़्म जिन से मिला दर्द आश्नाई का
नहीं हैं वो भी 'समद' अब मिरे सरापा में