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वो गुल हैं न उन की वो हँसी है | शाही शायरी
wo gul hain na unki wo hansi hai

ग़ज़ल

वो गुल हैं न उन की वो हँसी है

रियाज़ ख़ैराबादी

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वो गुल हैं न उन की वो हँसी है
देखो जिधर उस सी पड़ी है

क्यूँ सोग की रस्म जीते-जी है
मरने की हमारे क्या कही है

आड़ी हैकल को चूम लेगी
वो चीज़ जो कुछ उठी उठी है

दावत थी रक़ीब की मिरे घर
जूती में दाल क्या बटी है

आया दबे पाँव क़ब्र पर कौन
कोई नहीं मेरी बेकसी है

एक वज़्अ पर अब ख़ुदा निबाहे
तौबा कर के शराब पी है

वाइज़ है ख़राब ख़्वाहिश-ए-ख़ुल्द
बिल्कुल ये शख़्स जन्नती है

कुछ फूट पड़ी है घुंघरुओं में
छागल कुछ उन की कह रही है

मजबूर फ़रिश्ता है बदी का
पहले ही से कुछ कही बदी है

पैवस्ता नहीं मिरा लब-ए-शौक़
तेरे लब पर तिरी हँसी है

अब कौन कलीम बन के आया
फिर तूर पर आग सी लगी है

है आँख में आँख कौन डाले
कोई नहीं तेरी आरसी है

कैसा पीना कहाँ की तौबा
अब मैं हूँ ख़ुदा है बे-ख़ुदी है

ख़ुश होगे 'रियाज़' से भी मिलना
क्या बाग़-ओ-बहार आदमी है