वो घड़ी वो रुत गई वो दिन गए मौसम गए 
साथ इक जान-ए-वफ़ा के कितने ही आलम गए 
वो गए तो और फिर कोई न उन सा मिल सका 
वादी वादी हम फिरे पूरब गए पच्छम गए 
आस टूटी दिल की या कोई नया वादा हुआ 
ऐ शब-ए-ग़म क्या हुआ क्यूँ मेरे आँसू थम गए 
एक हम जो तुझ से छुट कर भी तिरे दर के रहे 
एक वो जो बज़्म में रह कर भी ना-महरम गए 
आज से ख़ुश रह के भी देखेंगे तेरे ग़म-नसीब 
तेरी मर्ज़ी है तो ले आहें गईं मातम गए
 
        ग़ज़ल
वो घड़ी वो रुत गई वो दिन गए मौसम गए
ख़लील-उर-रहमान आज़मी

