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वो ग़म-गुसार बिल-आख़िर बला-ए-जाँ निकला | शाही शायरी
wo gham-gusar bil-aKHir bala-e-jaan nikla

ग़ज़ल

वो ग़म-गुसार बिल-आख़िर बला-ए-जाँ निकला

मंज़र शहाब

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वो ग़म-गुसार बिल-आख़िर बला-ए-जाँ निकला
जिसे ज़मीन समझते थे आसमाँ निकला

अज़ीम-तर है मोहब्बत में रूह का रिश्ता
मगर बदन का तअ'ल्लुक़ भी दरमियाँ निकला

सुराग़-ए-क़त्ल शहादत सुबूत सब गूँगे
लहू ख़मोश था ख़ंजर भी बे-ज़बाँ निकला

तमाम रास्ते माज़ी के बंद थे फिर भी
हर एक मोड़ से यादों का कारवाँ निकला

सुनी जो मेरी कहानी तो रो पड़े सब लोग
सभों के दर्द में इक रिश्ता-ए-निहाँ निकला

हम अपने ग़म का फ़साना कहा किए शब-भर
हुई जो सुब्ह तो ज़िक्र-ए-ग़म-ए-जहाँ निकला

'शहाब' जिस की ख़िताबत का शोर है यारो
ग़ज़ल की बज़्म में कम-सौत-ओ-कम-बयाँ निकला