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वो एक तरहा से इक़रार करने आया था | शाही शायरी
wo ek tarha se iqrar karne aaya tha

ग़ज़ल

वो एक तरहा से इक़रार करने आया था

ज़फ़र इक़बाल

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वो एक तरहा से इक़रार करने आया था
जो इतनी दूर से इंकार करने आया था

ख़ुशी जो ख़्वाब में भी मेरी दस्तरस से थी दूर
मुझे इसी का सज़ा-वार करने आया था

ये साफ़ लगता है जैसी कि उस की आँखें थीं
वो अस्ल में मुझे बीमार करने आया था

अगर था उस को मिरी हैसियत का अंदाज़ा
तो क्यूँ वो अपना ख़रीदार करने आया था

ये ज़िंदगी कि जो आसाँ नहीं थी पहले भी
उसे कुछ और भी दुश्वार करने आया था

अगरचे एक ही सुस्त-उल-वजूद था लेकिन
वो काम कोई लगातार करने आया था

मिरे तो बस में कोई चीज़ थी न पहले भी
वो मुझ को और भी लाचार करने आया था

वो एक अब्र-ए-गिराँ-बार था मगर इस दिन
ज़रा फ़ज़ा को हवा-दार करने आया था

अदावतों में वहाँ धर लिया गया हूँ 'ज़फ़र'
जहाँ के लोगों से मैं प्यार करने आया था