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वो दुश्मन-ए-जाँ जान से प्यारा भी कभी था | शाही शायरी
wo dushman-e-jaan jaan se pyara bhi kabhi tha

ग़ज़ल

वो दुश्मन-ए-जाँ जान से प्यारा भी कभी था

अहमद फ़राज़

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वो दुश्मन-ए-जाँ जान से प्यारा भी कभी था
अब किस से कहें कोई हमारा भी कभी था

उतरा है रग-ओ-पै में तो दिल कट सा गया है
ये ज़हर-ए-जुदाई कि गवारा भी कभी था

हर दोस्त जहाँ अब्र-ए-गुरेज़ाँ की तरह है
ये शहर कभी शहर हमारा भी कभी था

तितली के तआक़ुब में कोई फूल सा बच्चा
ऐसा ही कोई ख़्वाब हमारा भी कभी था

अब अगले ज़माने के मिलें लोग तो पूछें
जो हाल हमारा है तुम्हारा भी कभी था

हर बज़्म में हम ने उसे अफ़्सुर्दा ही देखा
कहते हैं 'फ़राज़' अंजुमन-आरा भी कभी था