वो देखने हमें टुक बीमारी में न आया
सौ बार आँखें खोलीं बालीं से सर उठाया
गुलशन के ताएरों ने क्या बे-मुरव्वती की
यक बर्ग-ए-गुल क़फ़स में हम तक न कोई लाया
बे-हेच उस का ग़ुस्सा यारो बला-ए-जाँ है
हरगिज़ मना न हम से बहतेरा ही मनाया
क़द्द-ए-बुलंद अगरचे बे-लुत्फ़ भी नहीं है
सर्व-ए-चमन में लेकिन अंदाज़ा वो न पाया
नक़्शा अजब है उस का नक़्क़ाश ने अज़ल के
मतबू ऐसा चेहरा कोई न फिर बनाया
शब को नशे में बाहम थी गुफ़्तुगू-ए-दरहम
उस मस्त ने झँकाया यानी बहुत झुकाया
दिल-बस्तगी में खुलना उस का न उस से देखा
बख़्त-ए-निगूँ को हम ने सौ बार आज़माया
आशिक़ जहाँ हुआ है बे-ढंगियाँ ही की हैं
इस मीर-ए-बे-ख़िरद ने कब ढब से दिल लगाया
ग़ज़ल
वो देखने हमें टुक बीमारी में न आया
मीर तक़ी मीर