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वो दौर-ए-नशात-ए-दीदा-ओ-दिल जैसे बस अभी गुज़रा ही तो है | शाही शायरी
wo daur-e-nashat-o-dida-o-dil jaise bas abhi guzra hi to hai

ग़ज़ल

वो दौर-ए-नशात-ए-दीदा-ओ-दिल जैसे बस अभी गुज़रा ही तो है

मख़मूर सईदी

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वो दौर-ए-नशात-ए-दीदा-ओ-दिल जैसे बस अभी गुज़रा ही तो है
सीने की कसक किस तरह मिटे हर दाग़-ए-कुहन ताज़ा ही तो है

तू साथ कहाँ लेकिन अब तक हर रहगुज़र-ए-तन्हाई पर
जो आगे आगे चलता है ऐ दोस्त कोई तुझ सा ही तो है

इस ताइर-ए-आवारा के लिए यूँ जाल न बुन उम्मीदों के
उड़ता हुआ लम्हा जैसे अभी रोके से तिरे रुकता ही तो है

मालूम नहीं किस वक़्त ये क्या बरताव किसी से करती है
दुनिया से कोई उम्मीद न रख मायूस न हो दुनिया ही तो है

किरनें नए दिन के सूरज की फैलेंगी तो गुम हो जाएगा
तारीक है जिस से दिल का उफ़ुक़ गुज़री शब का साया ही तो है

लम्हों के हुजूम-ए-गुरेज़ाँ में इक लम्हा जिसे अपना कहिए
जाँ दे के भी हाथ आ जाए अगर महँगा कब है सस्ता ही तो है

'मख़मूर' तआ'क़ुब कर देखो कुछ दूर नहीं हाथ आ जाए
इक गुम-शुदा ख़ुश्बू का झोंका आँगन से अभी गुज़रा ही तो है