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वो दश्त-ए-तीरगी है कि कोई सदा न दे | शाही शायरी
wo dasht-e-tirgi hai ki koi sada na de

ग़ज़ल

वो दश्त-ए-तीरगी है कि कोई सदा न दे

सय्यद अहमद शमीम

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वो दश्त-ए-तीरगी है कि कोई सदा न दे
साया भी मेरे जिस्म का मुझ को पता न दे

ना-आगही की रात भी कितनी लतीफ़ थी
ये आगही की धूप है चेहरा जला न दे

ख़्वाबों का इक लतीफ़ सा है अक्स ज़ेहन पर
बाद-ए-सुमूम-ए-वक़्त इसे भी मिटा न दे

चश्म-ए-ग़ज़ाल झील का मंज़र हसीन मौत
मेरी तरफ़ न देख मुझे ये सज़ा न दे

दिल से भी उस निगाह का जादू छुपा लिया
नादाँ है सादगी में कहीं कुछ बता न दे

शाइस्तगी का जब्र कि रोया न जा सका
चुप-चाप दिल की आग बदन को घुला न दे

इक पल को भी सुकून न दे ज़िंदगी 'शमीम'
और भागना भी चाहूँ तो ये रास्ता न दे