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वो दर तलक आवे न कभी बात की ठहरे | शाही शायरी
wo dar talak aawe na kabhi baat ki Thahre

ग़ज़ल

वो दर तलक आवे न कभी बात की ठहरे

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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वो दर तलक आवे न कभी बात की ठहरे
हैराँ हूँ मैं किस तरह मुलाक़ात की ठहरे

हर रोज़ का मिलना है जो दुश्वार तो प्यारे
इतना तो करो क़स्द कि इक रात की ठहरे

जिस वक़्त कि हम आएँ तो ये चाहिए तुम को
औरों से न फिर हर्फ़-ओ-हिकायात की ठहरे

ऐ दीदा-ए-तर तुम भी झड़ी अपनी लगा दो
इस साल तो बरसात में बरसात की ठहरे

किस चीज़ पे फिर हम हों गुफ़्तार-ए-तअय्युन
दिन रात की ठहरे है न औक़ात की ठहरे

जब काट के दिल पैर गई होवे जिगर में
फिर क्यूँ न छुरी आप की उस बात की ठहरे

हर रोज़ ये चाहे है तिरी चश्म की गर्दिश
इस मरकज़-ए-ख़ाकी पे कुछ आफ़ात की ठहरे

ऐ 'मुसहफ़ी' इस वक़्त वो मेहमाँ है तुम्हारे
है घात की जागह तू, अगर घात की ठहरे