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वो चाल अटखेलियों से चल कर दिल ओ जिगर रौंदे डालते हैं | शाही शायरी
wo chaal aTkheliyon se chal kar dil o jigar raunde Dalte hain

ग़ज़ल

वो चाल अटखेलियों से चल कर दिल ओ जिगर रौंदे डालते हैं

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम

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वो चाल अटखेलियों से चल कर दिल ओ जिगर रौंदे डालते हैं
अभी जवानी का है जो आलम न देखते हैं न भालते हैं

चला है पहलू से यार उठ कर ग़म-ए-जुदाई को टालते हैं
कभी तो हम दिल को थामते हैं कभी जिगर को सँभालते हैं

कभी न जिन को लगाया था मुँह गले में बाहें वो डालते हैं
जो माँगता हूँ मैं एक बोसा तो आप आँखें निकालते हैं

अगर यही है तलव्वुन उन का ख़ुदा ही है वादा हो जो पूरा
कहा था कल आज वस्ल होगा वो आज फिर कल पे टालते हैं

न क़हर रफ़्तार-ए-नाज़ ढाए लचक न वक़्त-ए-ख़िराम आए
ख़ुदा ही नाज़ुक कमर बचाए कि पाएँचे वो सँभालते हैं

न जाँ-ब-लब क्यूँ मरीज़-ए-ग़म हो पए-अयादत न आए देखो
मसीह कहते हैं लोग जिन को वो जान कर मार डालते हैं

कभी ये कहते हैं दर्द-ए-सर है कभी ये कहते हैं अब सहर है
सितम ये मुश्ताक़-ए-वस्ल पर है हज़ारों हीले निकालते हैं

निकालूँ अरमान क्यूँ न जी के कि मस्त हों जाम-ए-इश्क़ पी के
मैं सदक़े इस अपनी बे-ख़ुदी के कि दौड़ कर वो सँभालते हैं

कसी के 'अंजुम' जो हैं सिखाए तो हैं नया रंग आज लाए
कि चुपके बैठे हैं सर झुकाए न बोलते हैं न चालते हैं