वो बस्तियाँ वो बाम वो दर कितनी दूर हैं
महताब तेरे चाँद-नगर कितनी दूर हैं
वो ख़्वाब जो ग़ुबार-ए-गुमाँ में नज़र न आए
वो ख़्वाब तुझ से दीदा-ए-तर कितनी दूर हैं
बाम-ए-ख़याल-ए-यार से उतरे तो ये खुला
हम से हमारे शाम-ओ-सहर कितनी दूर हैं
ऐ आसमान इन को जहाँ होना चाहिए
उस ख़ाक से ये ख़ाक-बसर कितनी दूर हैं
बैठे बिठाए दिल के सफ़र पर चले तो आए
लेकिन वो मेहरबान-ए-सफ़र कितनी दूर हैं
ये भी ग़ज़ल तमाम हुई शाम हो चुकी
अफ़्सून-ए-शाइरी के हुनर कितनी दूर हैं
ग़ज़ल
वो बस्तियाँ वो बाम वो दर कितनी दूर हैं
महताब हैदर नक़वी

