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वो बहकी निगाहें क्या कहिए वो महकी जवानी क्या कहिए | शाही शायरी
wo bahki nigahen kya kahiye wo mahki jawani kya kahiye

ग़ज़ल

वो बहकी निगाहें क्या कहिए वो महकी जवानी क्या कहिए

फ़रहत कानपुरी

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वो बहकी निगाहें क्या कहिए वो महकी जवानी क्या कहिए
वो कैफ़ में डूबे लम्हों की अब रात सुहानी क्या कहिए

उलझी हुई ज़ुल्फ़ें ख़्वाब-असर बदमस्त निगाहें वज्ह-ए-बक़ा
दुनिया से मगर इम्कान-ए-शब-ए-असरार-ओ-मआनी क्या कहिए

रूदाद-ए-मोहब्बत सुन सुन कर ख़ुद हुस्न को भी नींद आने लगी
अब और कहाँ से लाएँ दिल अब और कहानी क्या कहिए

जीना भी बहुत ही मुश्किल है मरना भी कोई आसान नहीं
अल्लाह रे कशाकश उल्फ़त की क्या जी में है ठानी क्या कहिए

'फ़रहत' का पता पूछे जो कोई काफ़ी है फ़क़त ये काफ़ी है
फूटी हुई क़िस्मत टूटा दिल अब और निशानी क्या कहिए