वो बात जिस से ये डर था खुली तो जाँ लेगी
सो अब ये देखिए जा के वो दम कहाँ लेगी
मिलेगी जलने से फ़ुर्सत हमें तो सोचेंगे
पनाह राख हमारी कहाँ कहाँ लेगी
ये आग जिस ने जलाए हैं शहरों जंगल सब
कभी बुझेगी तो ये सूरत-ए-ख़िज़ाँ लेगी
ये दिन जो था ये रहा हैं गवाह वा'दों का
ये शब जो है तिरे दा'वों का इम्तिहाँ लेगी
उतर गई है मिरे जिस्म में जो ये वहशत
निकलते वक़्त यही उम्र-ए-जावेदाँ लेगी
ज़रा सी ख़ाक लहू दे के मुतमइन हैं क्यूँ
अभी तो राह-ए-सफ़र रहरवों कि जाँ लेगी
वसीअ' इतनी है उर्यानियत ये जाँ की देख
बदन के ढकने को ये कितने आसमाँ लेगी
बुरीदा सर किए जाएँगे सब जवाँ किरदार
वो चेहरा देखना 'आतिफ़' ये दास्ताँ लेगी
ग़ज़ल
वो बात जिस से ये डर था खुली तो जाँ लेगी
आतिफ़ ख़ान