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वो और होंगे जो वहम-ओ-गुमाँ के साथ चले | शाही शायरी
wo aur honge jo wahm-o-guman ke sath chale

ग़ज़ल

वो और होंगे जो वहम-ओ-गुमाँ के साथ चले

शोला हस्पानवी

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वो और होंगे जो वहम-ओ-गुमाँ के साथ चले
हम अपनी राह पे अज़्म-ए-जवाँ के साथ चले

तलाश-ए-यार में हम हर मक़ाम से गुज़रे
कभी ज़मीन कभी आसमाँ के साथ चले

न जाने कितनी ही सदियों के फ़ासले हैं अभी
हुई है उम्र ज़मान-ओ-मकाँ के साथ चले

कभी तो पाएँगे हम भी हयात की मंज़िल
इसी ख़याल से उम्र-ए-रवाँ के साथ चले

तमाम रात किसी अजनबी का साथ रहा
सहर हुई तो दिल-ए-बद-गुमाँ के साथ चले

जो फूल बन के महकते थे रहगुज़ारों में
ग़ुबार बन के तिरे कारवाँ के साथ चले

वो हुस्न-ओ-इश्क़ के क़िस्से हैं जिन से वाबस्ता
उन्ही का ज़िक्र मिरी दास्ताँ के साथ चले

जुनूँ के दोश पे रख कर चराग़-ए-हस्ती हम
क़ज़ा को ढूँडने मौज-ए-रवाँ के साथ चले

उसी को कहते हैं शायद नसीब की गर्दिश
बहार आए तो शो'ला ख़िज़ाँ के साथ चले