वो अंधेरा है जिधर जाते हैं हम
अपनी दीवारों से टकराते हैं हम
काटते हैं रात जाने किस तरह
सुब्ह-दम घर से निकल आते हैं हम
बंद कमरे में सुकूँ मिलने लगा
जब हवा चलती है घबराते हैं हम
हाए वो बातें जो कह सकते नहीं
और तन्हाई में दोहराते हैं हम
ज़िंदगी की कश्मकश 'बाक़ी' न पूछ
नींद जब आती है सो जाते हैं हम
ग़ज़ल
वो अंधेरा है जिधर जाते हैं हम
बाक़ी सिद्दीक़ी