वो अक्स बन के मिरी चश्म-ए-तर में रहता है
अजीब शख़्स है पानी के घर में रहता है
वही सितारा शब-ए-ग़म का इक सितारा है
वो इक सितारा जो चश्म-ए-सहर में रहता है
खुली फ़ज़ा का पयामी हवा का बासी है
कहाँ वो हल्क़ा-ए-दीवार-ओ-दर में रहता है
जो मेरे होंटों पे आए तो गुनगुनाऊँ उसे
वो शेर बन के बयाज़-ए-नज़र में रहता है
गुज़रता वक़्त मिरा ग़म-गुसार क्या होगा
ये ख़ुद तआ'क़ुब-ए-शाम-ओ-सहर में रहता है
मिरा ही रूप है तू ग़ौर से अगर देखे
बगूला सा जो तिरी रहगुज़र में रहता है
न जाने कौन है जिस की तलाश में 'बिस्मिल'
हर एक साँस मिरा अब सफ़र में रहता है
ग़ज़ल
वो अक्स बन के मिरी चश्म-ए-तर में रहता है
बिस्मिल साबरी