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वो अक्स बन के मिरी चश्म-ए-तर में रहता है | शाही शायरी
wo aks ban ke meri chashm-e-tar mein rahta hai

ग़ज़ल

वो अक्स बन के मिरी चश्म-ए-तर में रहता है

बिस्मिल साबरी

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वो अक्स बन के मिरी चश्म-ए-तर में रहता है
अजीब शख़्स है पानी के घर में रहता है

वही सितारा शब-ए-ग़म का इक सितारा है
वो इक सितारा जो चश्म-ए-सहर में रहता है

खुली फ़ज़ा का पयामी हवा का बासी है
कहाँ वो हल्क़ा-ए-दीवार-ओ-दर में रहता है

जो मेरे होंटों पे आए तो गुनगुनाऊँ उसे
वो शेर बन के बयाज़-ए-नज़र में रहता है

गुज़रता वक़्त मिरा ग़म-गुसार क्या होगा
ये ख़ुद तआ'क़ुब-ए-शाम-ओ-सहर में रहता है

मिरा ही रूप है तू ग़ौर से अगर देखे
बगूला सा जो तिरी रहगुज़र में रहता है

न जाने कौन है जिस की तलाश में 'बिस्मिल'
हर एक साँस मिरा अब सफ़र में रहता है