वो अब्र जो मय-ख़्वार की तुर्बत पे न बरसे
कह दो कि ख़ुदारा कभी गुज़रे न इधर से
इतना तो हुआ आह शब-ए-ग़म के असर से
फ़ितरत का जिगर फूट बहा चश्म-ए-सहर से
उम्मीद ने भी यास के मुर्दों को पुकारा
आई कोई आवाज़ न दिल से न जिगर से
नासेह को बुलाओ मिरा ईमान सँभाले
फिर देख लिया उस ने उसी एक नज़र से
ख़ुर्शीद-ए-क़यामत की अदा देख रहा हूँ
मिलती हुई सूरत है मिरे दाग़-ए-जिगर से
एक एक क़दम पर है जहाँ ख़ंदा-ए-तक़दीर
तदबीर गुज़रती है उसी राहगुज़र से
ऐ ख़ंदा-ए-गुलशन ये है अंजाम-ए-शब-ए-ऐश
गुल रोते हैं न मुँह ढाँप के दामान-ए-सहर से
कुछ शान-ए-करीमी ने इस अंदाज़ से तौला
भारी ही रहा दीदा-ए-तर दामन-ए-तर से
ख़तरे में हैं कुछ दिन से 'हफ़ीज़' अहल-ए-दो-आलम
हर शब मेरे नालों की लड़ाई है असर से
ग़ज़ल
वो अब्र जो मय-ख़्वार की तुर्बत पे न बरसे
हफ़ीज़ जालंधरी