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वो आ रहे हैं वो जा रहे हैं मिरे तसव्वुर पे छा रहे हैं | शाही शायरी
wo aa rahe hain wo ja rahe hain mere tasawwur pe chha rahe hain

ग़ज़ल

वो आ रहे हैं वो जा रहे हैं मिरे तसव्वुर पे छा रहे हैं

इक़बाल हुसैन रिज़वी इक़बाल

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वो आ रहे हैं वो जा रहे हैं मिरे तसव्वुर पे छा रहे हैं
कभी हैं दिल में कभी जिगर में कभी नज़र में समा रहे हैं

जुनूँ-नवाज़ी है मेरी फ़ितरत इसी से हासिल है मुझ को राहत
जो मुझ से होश-ओ-ख़िरद ने छीना जुनूँ के सदक़े वो पा रहे हैं

जिगर को रोकूँ या दिल को थामूँ इलाही किस किस को मैं सँभालूँ
मिरे तसव्वुर की अंजुमन में वो आज बन-ठन के आ रहे हैं

लगाई दिल में कुछ ऐसी तू ने ये आतिश-ए-सोज़िश-ए-मोहब्बत
भड़क रही है ये उतना पैहम हम उस को जितना बुझा रहे हैं

ये राह-ए-उल्फ़त की ठोकरें हैं इन्हें न मंज़िल समझ के ठहरो
क़दम बढ़ाओ वो क़ाफ़िला है तुम्हारे साथी बुला रहे हैं

हैं रहरवान-ए-रह-ए-मोहब्बत निराली रस्में निराली फ़ितरत
जहाँ लुटा कारवान-ए-उल्फ़त वहीं पे मंज़िल बना रहे हैं

न हम को शेर-ओ-सुख़न से मतलब न इशरत-ए-अंजुमन से मतलब
किसी को 'इक़बाल' दास्तान-ए-ग़म-ए-मोहब्बत सुना रहे हैं