विसाल-ओ-हिज्र के जंजाल में पड़ा हुआ हूँ
में अर्श-ए-रौ कहाँ पाताल में पड़ा हुआ हूँ
वही घुटन, वही मामूल ज़िंदगी, वही ग़म
कहाँ मैं जश्न नए साल में पड़ा हुआ हूँ
यहाँ से निकलूँ किसी और का शिकार बनूँ
इसी लिए तो तिरे जाल में पड़ा हुआ हूँ
गरेबाँ चाक, धुआँ, जाम, हाथ में सिगरेट
शब-ए-फ़िराक़, अजब हाल में पड़ा हुआ हूँ
पहुँच चुका है ज़माना ज़मीं से चाँद तिलक
कहाँ मैं ज़ुल्फ़, नज़र, गाल में पड़ा हुआ हूँ
ग़ज़ल
विसाल-ओ-हिज्र के जंजाल में पड़ा हुआ हूँ
हाशिम रज़ा जलालपुरी