वीराँ थी रात चाँद का पत्थर सियाह था
या पर्दा-ए-निगाह सरासर सियाह था
टूटे हुए मकाँ की अदा देखता कोई
सरसब्ज़ थी मुंडेर कबूतर सियाह था
मैं डूबता जज़ीरा था मौजों की मार पर
चारों तरफ़ हवा का समुंदर सियाह था
नश्शा चढ़ा तो रौशनियाँ सी दिखाई दीं
हैरान हूँ कि मौत का साग़र सियाह था
वो ख़्वाब था कि वाहिमा बस इतना याद है
बाहर सफ़ेद ओ सुर्ख़ था अंदर सियाह था
चमका कहीं न रेत का ज़र्रा भी रात-भर
सहरा-ए-इंतिज़ार बराबर सियाह था
इस तरहा बादलों की छतें छाई थीं 'ज़फ़र'
सहमी हुई ज़मीन थी मंज़र सियाह था
ग़ज़ल
वीराँ थी रात चाँद का पत्थर सियाह था
ज़फ़र इक़बाल