विदाअ करता है दिल सतवत-ए-रग-ए-जाँ को
ख़बर करो मिरे ख़्वाबों के शब-सुलैमाँ को
मुहीत-ए-जाँ न कोई ज़ाइक़ा न सब्ज़ा-ए-शब
तलाश करती है ख़ुश्बू किसी गरेबाँ को
मुझे ये फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ-ख़्वाब काट लेने दो
कि फिर न निकले कोई दूसरा बयाबाँ को
लहू को आँख में रहने का ज़ोम था वर्ना
टपक भी सकता था बहला के दिल के तूफ़ाँ को
मुझे तो ग़म भी पनह ज़ाद ही लगे अब तो
कि आ निकलती है हसरत भी सैर-ए-मिज़्गाँ को
किसी उदू की मुरव्वत से अब भी ताज़ा हैं
वो ज़ख़्म-ए-ख़्वाब कि जो ढूँडते हैं पैकाँ को
हिसाब उस की मोहब्बत का हर्फ़ हर्फ़ करूँ
जो आ गया था मिरी तिश्नगी के सामाँ को
ग़ज़ल
विदा करता है दिल सतवत-ए-रग-ए-जाँ को
किश्वर नाहीद

