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वस्ल-ओ-फुर्क़त अज़ाब हैं दोनों | शाही शायरी
wasl-o-furqat azab hain donon

ग़ज़ल

वस्ल-ओ-फुर्क़त अज़ाब हैं दोनों

तमीज़ुद्दीन तमीज़ देहलवी

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वस्ल-ओ-फुर्क़त अज़ाब हैं दोनों
बाइस-ए-इज़्तिराब हैं दोनों

कुफ़्र-ओ-ईमाँ सवाब हैं दोनों
तुझ से ही फ़ैज़याब हैं दोनों

हुस्न में आप इश्क़ में अहक़र
आप अपना जवाब हैं दोनों

मैं सर-ए-दार वो पस-ए-चिलमन
किस क़दर बे-हिजाब हैं दोनों

हसरत-ए-दीद-ओ-ना-मुरादी-ए-शौक़
इक मुकम्मल अज़ाब हैं दोनों

आप का ज़ुल्म मेरा सब्र-ओ-शकेब
वाक़ई बे-हिसाब हैं दोनों

मैं तह-ए-तेग़ वो सर-ए-मक़्तल
आज तो कामयाब हैं दोनों

उफ़ वो ताबानी-ए-लब-ओ-रुख़सार
रश्क-ए-सद-माहताब हैं दोनों