वस्ल में बिगड़े बने यार के अक्सर गेसू
उलझे सुलझे मिरी तक़दीर से शब भर गेसू
मैं न मानूँगा ये ज़ुल्मत उसे किस दिन हो नसीब
हो गए होंगे शरीक शब-ए-महशर गेसू
कहने सुनने से अगर वस्ल हुआ भी तो क्या
ज़िद से बैठे वो बनाया किए शब भर गेसू
चाहते हैं कि परेशाँ पस-ए-मुर्दन भी रहूँ
खोल देते हैं मिरी गोर पर आ कर गेसू
उड़ चला और भी वो रश्क-ए-परी-ज़ादाँ से
बन गए हुस्न के परवाज़ को शहपर गेसू
आरज़ू है कि शब-ए-क़द्र हो या शाम-ए-उमीद
कुछ दिखाए न ख़ुदा तेरे दिखा कर गेसू
ये भी तक़दीर के हैं पेच वगरना 'तस्लीम'
मुझ सा आज़ाद हो पाबंद-ए-मोअम्बर गेसू
ग़ज़ल
वस्ल में बिगड़े बने यार के अक्सर गेसू
अमीरुल्लाह तस्लीम