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वस्ल की उन बुतों से आस नहीं | शाही शायरी
wasl ki un buton se aas nahin

ग़ज़ल

वस्ल की उन बुतों से आस नहीं

दत्तात्रिया कैफ़ी

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वस्ल की उन बुतों से आस नहीं
कि टिके दक्षिना को पास नहीं

इम्तिहान-ए-वफ़ा पे कर्ब-ए-फ़िराक़
पास हैं हाए और पास नहीं

नफ़्स को मार कर मिले जन्नत
ये सज़ा क़ाबिल-ए-क़यास नहीं

दम में ये आना और जाना क्या
आप इंसाँ हैं कुछ हवास नहीं

ख़ौफ़-ए-वीराँ हुआ है ख़ाना-ए-दिल
आस कैसी कि याँ तो यास नहीं

का'बे में जा के क्या करें ज़ाहिद
वाँ की आब-ओ-हवा ही रास नहीं

शाइ'री है मिरी कि सेहर-ए-हलाल
भला कह दें तो हक़-शनास नहीं

पाऊँ किस से मज़ाक़-ए-शेर की दाद
आज 'फ़ैज़ी'-ओ-'कालीदास' नहीं

जाम-ए-ख़ुर्शीद में है आब-ए-हयात
राम-रंगी का ये गिलास नहीं

'कैफ़ी' और जाम-ए-बादा से इंकार
तुम को कुछ नाम का भी पास नहीं