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वस्ल की तो कभी फ़ुर्क़त की ग़ज़ल लिखते हैं | शाही शायरी
wasl ki to kabhi furqat ki ghazal likhte hain

ग़ज़ल

वस्ल की तो कभी फ़ुर्क़त की ग़ज़ल लिखते हैं

अशोक मिज़ाज बद्र

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वस्ल की तो कभी फ़ुर्क़त की ग़ज़ल लिखते हैं
हम तो शाइ'र हैं मोहब्बत की ग़ज़ल लिखते हैं

पढ़िए उन को किसी काग़ज़ पे नहीं सरहद पर
अपने ख़ूँ से जो शहादत की ग़ज़ल लिखते हैं

रहनुमा अपने वतन के भी हैं कितने शातिर
वो शहादत पे सियासत की ग़ज़ल लिखते हैं

तुम ने मज़दूर के छाले नहीं देखे शायद
अपने हाथों पे वो मेहनत की ग़ज़ल लिखते हैं

मुल्क ऐसे भी हैं कुछ ख़ास पड़ोसी अपने
सरहदों पे जो अदावत की ग़ज़ल लिखते हैं

हम सभी चैन से सोते हैं मगर रातों में
फ़ौज वाले तो हिफ़ाज़त की ग़ज़ल लिखते हैं

शौक़ लिखने का बहुत हम को भी है लेकिन हम
सोने के पेन से ग़ुर्बत की ग़ज़ल लिखते हैं