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वस्फ़-ए-जमाल-ए-ज़ौक़ है अहल-ए-निगाह का | शाही शायरी
wasf-e-jamal-e-zauq hai ahl-e-nigah ka

ग़ज़ल

वस्फ़-ए-जमाल-ए-ज़ौक़ है अहल-ए-निगाह का

नातिक़ गुलावठी

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वस्फ़-ए-जमाल-ए-ज़ौक़ है अहल-ए-निगाह का
हैरत कहूँ कि शोर कहूँ वाह वाह का

अहल-ए-जुनूँ पे ज़ुल्म है पाबंदी-ए-रुसूम
जादा हमारे वास्ते काँटा है राह का

रखता है तल्ख़-काम ग़म-ए-लज़्ज़त-ए-जहाँ
क्या कीजिए कि लुत्फ़ नहीं कुछ गुनाह का

क्या कुछ जनाब-ए-शैख़ की निय्यत से था बईद
मौक़ा भी दुख़्त-ए-रज़ ने दिया हो गुनाह का

ऐ बर्क़ कब से इक नज़र-ए-गर्म के लिए
आतश-बजाँ है दश्त में तिनका गियाह का

हंगामा-ए-हयात से लेना तो कुछ नहीं
हाँ देखते चलो कि तमाशा है राह का

मैं हासिल-ए-नज़र हूँ तमन्ना-ए-दीद में
लेता हूँ काम हर बुन-ए-मू से निगाह का

'नातिक़' गिला-पसंद है तू ग़म-जफ़ा-पसंद
ऐ दाद-ख़्वाह काम है बे-दाद-ख़्वाह का