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वरक़ वरक़ जो ज़माने के शाहकार में था | शाही शायरी
waraq waraq jo zamane ke shahkar mein tha

ग़ज़ल

वरक़ वरक़ जो ज़माने के शाहकार में था

गुहर खैराबादी

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वरक़ वरक़ जो ज़माने के शाहकार में था
वो ज़िंदगी का सहीफ़ा भी इंतिशार में था

जिसे मैं ढूँड रहा था नवा-ए-बुलबुल में
वो नग़्मा पैरहन-ए-गुल के तार तार में था

मैं क़त्ल हो के ज़माने में सरफ़राज़ रहा
कि मेरी जीत का पहलू भी मेरी हार में था

कलेजे सारे दरख़्तों के सहमे जाते थे
हवा का रुख़ था भला किस के इख़्तियार में था

वो ना-शनास-वफ़ा सेज पर था फूलों की
मैं आश्ना-ए-वफ़ा दश्त-ए-ख़ार-ख़ार में था

दयार-ए-ग़ैर में हासिल थीं शोहरतें मुझ को
मैं अजनबी की तरह अपने ही दयार में था

समझ रहा था मैं ख़्वाबीदा ख़ुद को साहिल पर
खुली जब आँख तो दरिया की तेज़ धार में था

निगाह वालों में उस का भरम न रह पाया
वो संग था मगर आईनों की क़तार में था

मोहब्बतें थीं मिरे इख़्तियार में लेकिन
मोहब्बतों का सिला उस के इख़्तियार में था

चमक रहा वही गौहर-ए-वफ़ा बन कर
'गुहर' जो अश्क मिरी चश्म-ए-इन्तिज़ार में था