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वक़्ती ये हिसाब-ए-ज़ुल्म कब है | शाही शायरी
waqti ye hisab-e-zulm kab hai

ग़ज़ल

वक़्ती ये हिसाब-ए-ज़ुल्म कब है

महशर बदायुनी

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वक़्ती ये हिसाब-ए-ज़ुल्म कब है
तारीख़ के हाफ़िज़े में सब है

हम पहले भी कम दुखी नहीं थे
ये हाल कभी न था जो अब है

जानों को लगा शदीद आज़ार
संगीन ही कुछ इस का सबब है

वो रुत है न अब वो हम-नवा हैं
अब नौहा-ए-ख़ू-गरी ही कार-ए-लब है

एहसास के बंद टूटते हैं
लेकिन ये शिकस्तगी अजब है

दिल जलता है कुछ खुले भी आख़िर
कब तक ये तमाज़त-ए-ग़ज़ब है

क्या मौत ही अब है चारा-ए-जाँ
हर लम्हा-ए-उम्र ख़ूँ-तलब है