वक़्ती ये हिसाब-ए-ज़ुल्म कब है
तारीख़ के हाफ़िज़े में सब है
हम पहले भी कम दुखी नहीं थे
ये हाल कभी न था जो अब है
जानों को लगा शदीद आज़ार
संगीन ही कुछ इस का सबब है
वो रुत है न अब वो हम-नवा हैं
अब नौहा-ए-ख़ू-गरी ही कार-ए-लब है
एहसास के बंद टूटते हैं
लेकिन ये शिकस्तगी अजब है
दिल जलता है कुछ खुले भी आख़िर
कब तक ये तमाज़त-ए-ग़ज़ब है
क्या मौत ही अब है चारा-ए-जाँ
हर लम्हा-ए-उम्र ख़ूँ-तलब है

ग़ज़ल
वक़्ती ये हिसाब-ए-ज़ुल्म कब है
महशर बदायुनी