वक़्त पर इश्क़-ए-ज़ुलेख़ा का असर लगता है
आख़िर-ए-उम्र भी आग़ाज़-ए-सफ़र लगता है
ये समुंदर है मगर सोख़्ता-जाँ शाइर को
किसी मजबूर का इक दीदा-ए-तर लगता है
सुब्ह-ए-ताज़ा है मुक़द्दर दिल-ए-मायूस ठहर
शजर-ए-उम्मीद पे इनआ'म-ए-समर लगता है
मैं ज़बाँ-बंदी का ये अहद नहीं तोडूँगा
हाँ मगर इस दिल-ए-गुस्ताख़ से डर लगता है
हमें इदराक-ए-मोहब्बत तो नहीं है लेकिन
इतना मालूम है इस खेल में सर लगता है

ग़ज़ल
वक़्त पर इश्क़-ए-ज़ुलेख़ा का असर लगता है
नईम जर्रार अहमद