वक़्त ने दिल की तबीअ'त में वफ़ा रक्खी है
कुल्फ़त-ए-आगही फिर उस की सज़ा रखी है
दिल हो पज़मुर्दा तो है ख़ंदा-ए-गुल बे-मा'नी
हर ख़ुशी और ग़मी दिल ने छुपा रक्खी है
चाक करती है सबा सुब्ह को ग़ुंचों के जिगर
ये कहानी मुझे शबनम ने सुना रक्खी है
ग़ुंचे ग़ुंचे में है पोशीदा सलीब-ए-ग़म-ए-दोस्त
किस ने फूलों में ये क़ातिल की अदा रक्खी है
किस के छुप जाने से हैरान हुई है दुनिया
किस के जल्वों ने ये दीवानी बना रक्खी है
ज़िंदगी हो गई किस तरह तू इतनी सस्ती
किस लिए तू ने भरी दुनिया सता रक्खी है
इल्म से जिस के मुझे मिल सके मंज़िल का निशाँ
वक़्त ने मुझ से वही बात छुपा रक्खी है
हम ने हर मोड़ पे चाहत के जलाए हैं चराग़
हम ने हर गाम पे उल्फ़त की बिना रक्खी है
तफ़रक़ों का नहीं आपस में कहीं कोई जवाज़
सब ने औहाम की दीवार उठा रक्खी है
दर्द-ए-हिज्राँ के तसलसुल से न घबरा दिल-ए-ज़ार
इश्क़ ने दर्द के अंदर ही दवा रक्खी है
वक़्त ले आया है ख़ुद हद में उसे देर सवेर
जिस ने भी क़द से सिवा अपनी अना रक्खी है
उस सितमगर का में ऐ 'राज़' करूँ क्या शिकवा
हर बला मेरे लिए जिस ने रवा रक्खी है

ग़ज़ल
वक़्त ने दिल की तबीअ'त में वफ़ा रक्खी है
ख़लीलुर्रहमान राज़