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वक़्त की आँख से कुछ ख़्वाब नए माँगता है | शाही शायरी
waqt ki aankh se kuchh KHwab nae mangta hai

ग़ज़ल

वक़्त की आँख से कुछ ख़्वाब नए माँगता है

हुमैरा राहत

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वक़्त की आँख से कुछ ख़्वाब नए माँगता है
दिल मिरा एक दुआ रात गए माँगता है

एक आवाज़ तह-ए-आब बुलाती है मुझे
इश्क़ मुझ से भी वही कच्चे घड़े माँगता है

दर्द कहता है किसी साअत-ए-तन्हा में रहूँ
इक मकाँ गहरे समुंदर से परे माँगता है

ज़ब्त चाहे उसे रुख़्सत की इजाज़त मिल जाए
अश्क आँखों से मोहब्बत के सिले माँगता है

दश्त दर दश्त लिए फिरता है मुझ को ये जुनूँ
इम्तिहाँ इश्क़ में कुछ और कड़े माँगता है