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वक़्त के चेहरे पे चढ़ती धूप का ग़ाज़ा लगा | शाही शायरी
waqt ke chehre pe chaDhti dhup ka ghaza laga

ग़ज़ल

वक़्त के चेहरे पे चढ़ती धूप का ग़ाज़ा लगा

मुख़तार शमीम

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वक़्त के चेहरे पे चढ़ती धूप का ग़ाज़ा लगा
कुछ मिरे रंग-ए-सुख़न का इस से अंदाज़ा लगा

एक लफ़्ज़-ए-कुन अमीन-ए-आलम-ए-इम्काँ हज़ार
एक इक लम्हे से तो सदियों का अंदाज़ा लगा

टूट जाता हूँ शिकस्ता आइने को देख कर
जब कभी ख़ुद से मिला हूँ ज़ख़्म इक ताज़ा लगा

इक न इक आसेब चुपके से अभी दर आएगा
बंद कर घर के दरीचे लाख दरवाज़ा लगा

सोचता क्या है मुक़द्दर आज़माना शर्त है
खुल ही जाएगा दरीचा कोई आवाज़ा लगा

चिलचिलाती धूप की नज़रों ने ताका है वहीं
सब्ज़ टहनी पर अगर इक फूल भी ताज़ा लगा

इज्ज़ एजाज़-ए-सुख़न है मा'नी-ए-ईजाद-ए-फ़न
क़ीमत-ए-अर्ज़-ए-हुनर का कुछ तो अंदाज़ा लगा