वक़्त-ए-मायूसी है कोई आसरा बाक़ी रहे
ये दुआ है आसमानों पर ख़ुदा बाक़ी रहे
कुछ तो हो लोगों के पथरीले सवालों का जवाब
उस के होंटों पर मिरी तर्ज़-ए-नवा बाक़ी रहे
कुछ तो हो बंजर ज़मीनों के सुलगने का सिला
दश्त के सर पर कोई काली घटा बाक़ी रहे
जाने वालों के लिए किस ने लगाई ये सदा
रास्ते खो जाएँ लेकिन हौसला बाक़ी रहे
आँधियों के सामने रख दे जो अपने सब चराग़
मैं नहीं तो कोई मुझ सा दूसरा बाक़ी रहे
कितनी तहरीरें सजी हैं वक़्त की दीवार पर
कौन कह सकता है क्या मिट जाए क्या बाक़ी रहे

ग़ज़ल
वक़्त-ए-मायूसी है कोई आसरा बाक़ी रहे
मुमताज़ राशिद