वक़्त आख़िर ले गया वो शोख़ियाँ वो बाँकपन
फूल से चेहरे थे कितने और थे नाज़ुक बदन
लोग रखते हैं दिलों में आतिश-ए-बुग़्ज़-ओ-हसद
और फिर करते हैं शिकवा जल रहा है तन बदन
चल पड़े जब जानिब-ए-मंज़िल तो फिर ऐ हम-सफ़र
क्या सफ़र की मुश्किलें क्या दूरियाँ कैसी थकन
हम नहीं तोड़ेंगे अपना इत्तिफ़ाक़-ओ-इत्तिहाद
कर चुके हैं फ़ैसला ये अब सभी अहल-ए-वतन
उन की साज़िश है कि बस नाम-ए-वफ़ा मिटता रहे
मेरी कोशिश है फले-फूले वफ़ाओं का चलन
जश्न होगा फिर वफ़ा का दोस्ती का एक दिन
फिर सजेगी प्यार के एहसास की इक अंजुमन
जो भी हैं 'शायान' अहल-ए-ज़र्फ़ उन को ख़ौफ़ क्या
उन के आगे सर-निगूँ हैं वक़्त के दार-ओ-रसन

ग़ज़ल
वक़्त आख़िर ले गया वो शोख़ियाँ वो बाँकपन
शायान क़ुरैशी